मैन्युफैक्चरिंग या डिस्ट्रीब्यूशन में कौन सा फायदेमंद व्यवसाय है?

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मैन्युफैक्चरिंग या डिस्ट्रीब्यूशन में कौन सा फायदेमंद व्यवसाय है?

मैन्यूफैक्चरिंग और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों ही काम किसी भी बिजनेस को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन दोनों को किसी भी उद्योग या व्यवसाय का आधार स्तम्भ कहा जाता है। दोनों के बीच बहुत ही घनिष्ठ संबंध होने चाहिये। इन दोनों के बिना किसी भी तरह के उद्योग अच्छी तरह से चलने की आशा नहीं की जाती है। किसी भी व्यवसाय को अच्छी तरह से चलाने के लिए इन दोनों के बीच अच्छे व्यावसायिक संबंध होने आवश्यक हैं। मैन्यूफैक्चरिंग का व्यवसाय सीधा सादा भले ही होता हो लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी वाला होता है। जबकि डिस्ट्रीब्यूशन का काम थोड़ा शातिर दिमाग और अच्छी डीलिंग वाला होता है। वह भी अपने हुनर के चलते निर्माता से दो कदम आगे रहने की कोशिश करता है। अब इन दोनों व्यवसायों में कौन सा व्यवसाय अधिक लाभ वाला होता है। इस गंभीर विषय पर विचार किया जाना आवश्यक है।

लाभ के लिए खींचतान मची रहती है

मैन्यूफैक्चरिंग और डिस्ट्रीब्यूटरिंग किसी भी उद्योग की  दो मुख्य धाराएं हैं । दोनों धाराओं को मिलकर उद्योग को बढ़ावा देना होता है लेकिन लाभ की हिस्सेदारी को लेकर दोनों के बीच हमेशा खींचतान बनी रहती हैै। निर्माता और वितरक दोनों ही उच्च श्रेणी के व्यापारी होते हैं। दोनों ही व्यापार में अवसरों की तलाश में रहते हैं और अपने-अपने हिस्से का अधिक से अधिक लाभ लेने से नहीं चूकते हैं। इसलिये दोनों के व्यापारिक लाभ भी बहुत अधिक मिलते जुलते हैं। इसमें यह अन्तर कर पाना बहुत मुश्किल होता है कि निर्माता और वितरक के व्यवसाय में से कौन सा अधिक फायदेमंद वाला बिजनेस होता है। फिर भी कुछ ऐसे अन्तर होते हैं कि उनसे यह मालूम हो जाता है कि इनमें से कौन सा व्यवसाय अधिक फायदे वाला होता है।

निर्माता और वितरक में क्या अन्तर होता है

आपने वो वाली कहावत तो सुनी ही होगी कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा है। बस यही सबसे बड़ा अंतर निर्माता और वितरको के बीच होता है। जहां निर्माता अपनी पूंजी, श्रमिक व मेहनत, मार्केटिंग आदि सारी तैयारियों के साथ प्रोडक्ट तैयार करता है जबकि वितरक निर्माता की पूंजी व लागत के मुकाबले बहुत कम धनराशि देकर उससे थोक में माल खरीद का रिटेलर्स को बेचता है।

निर्माता ये भी काम करता है

1. कोई कोई निर्माता अपने बिजनेस को शुरू-शुरू में स्थापित करने के लिए स्वयं ही वितरक का काम करते हैं। क्योंकि उन्हें मार्केट जमाने मे कम से कम खर्चा करना होता है। जबकि वितरक को रखने का मतलब उसको कमीशन या उसके हिस्से का लाभ देना होता है।

2. निर्माता वितरक बनकर रिटेलर्स को अधिक मुनाफा देने का प्रलोभन देकर अपनी मार्केट को तैयार करता है। एक स्थिति के बाद निर्माता को मार्केट के लिए वितरक की आवश्यकता होती है। तब वह अपने वितरक की नियुक्ति करता है।

3. कुछ निर्माता ऐसे भी होते हैं कि वे निर्माताओं को अधिक कमीशन देने की जगह पर अपने प्रतिनिधियों को ठेकेदार बनाकर वितरण का काम सौंपते हैं। यह ठेकेदार उस स्थिति में नियुक्त किये जाते हैं जब प्रोडक्ट की मार्केट से डिमांड आनी शुरू हो जाती है और डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम का ढांचा तैयार हो गया होता है। उस समय इन प्रतिनिधि ठेकेदारों को सिर्फ वितरण का काम करना होता है। वो भी बिना किसी प्रतिस्पर्धा वाली वस्तु का वितरण करना होता है।

निर्माता क्यों नियुक्त करता है वितरक

निर्माता आने प्रोडक्ट को सिस्टमेटिक तरीके से बाजार में पहुंचाने के लिए वितरकों की तलाश करता है। एक तरह से कहें कि वह अपने प्रत्येक निश्चित व्यावसायिक क्षेत्र के लिए वितरकों की नियुक्ति करता है ताकि वह मार्केट के प्रबंधन की व्यस्तता से राहत पा सके और उसका प्रोडक्ट आसानी से अधिक से अधिक ग्राहकों तक पहुंच सके। साथ ही मार्केट में उसके प्रोडक्ट को लेकर व्यापारिक भगदड़ न मच सके। मार्केट में रिटेलर्स के बीच प्रोडक्ट को लेकर किसी तरह की मनमानी न हो सके, इसके लिए वितरक पूरी तरह से नियंत्रण करता है।

कहने को तो यह कहा जा सकता है कि वितरक निर्माता से अधिक व्यवसाय करता है तो वहीं सबसे अधिक कमाई करने का हकदार है क्योंकि वितरक रिटेलर्स की टीम बनाता है और उसके ही इशारे पर किसी प्रोडक्ट को हिट या अनफिट किया जा सकता है।

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मैन्युफैक्चरर्स की भूमिका और महत्व

  • मैन्यूफैक्चरर्स की उद्योग में क्या भूमिका होती है और कितना महत्व होता है? यह तो सभी जानते हैं कि अपनी पूंजी लगाकर फैक्ट्री स्थापित कर मशीनों और कुशल कारीगरों के माध्यम से कच्चे माल से किसी भी कॉमर्शियल प्रोडक्ट को तैयार कराने वाले को निर्माता कहते हैं।
  • ये निर्माता की अधूरी पहचान है। निर्माता अपना बिजनेस शुरू करने से पहले अपनी मार्केट व ग्राहक तलाशता है, उसके बारे में अच्छी तरह से रिसर्च करता है क्योंकि वह सोचता है कि बिजनेस करने के लिए हम बड़ी पूंजी इन्वेस्ट करने जा रहे हैं, उसके सारे जोखिम पहले से जान कर उन्हें दूर कर लिये जायें तो अच्छा बिजनेस स्थापित किया जा सकता है।
  • अपने ग्राहकों और मार्केट को अच्छी तरह से छानने-बीनने के बाद ही वह अपने बिजनेस को शुरू करने का पूरा प्लान बनाता है। फैक्ट्री के लिए जमीन, बिजली, पानी, कुशल व अकुशल श्रमिक, कच्चा माल, मशीन, ट्रांसपोर्टेशन के साधन आदि अन्य तरह की जरूरतों को पूरा करने के बाद ही अपना प्रोडक्ट तैयार करता है।
  • प्रोडक्ट तैयार करने के बाद उसे मार्केट में पहुंचाने से पहले उसकी जमकर मार्केटिंग करता है। अपने ग्राहकों से अपने प्रोडक्ट को परिचित कराता है। कभी कभी तो वह स्वयं डिस्ट्रीव्यूटर का भी काम करता है। मार्केट में रिटेलर्स की टीम बनाता है, उन्हें अपने प्रोडक्ट के बारे में अच्छी तरह से समझाता है, डिस्प्ले आदि के बारे में बताता है। इसके लिए वह रिटेलर्स की पूरी मदद करता है। एक तरह से वह डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम पूरी तरह से बना देता है। उसके बाद ही वह किसी डिस्ट्रीब्यूटर्स की तलाश करता है।
  • मैन्यूफैक्चरर्स को अपने मनपसंद के डिस्ट्रीब्यूटर मिल जाते हैं और उनसे विचार मिल जाते हैं तो वह क्षेत्रवार अनेक डिस्ट्रीब्यूटर्स को तैनात करता है। यदि डिस्ट्रीब्यूटर्स नहीं मिल पाते हैं तो वह अपने प्रतिनिधियों को ठेकेदार बनाकर उनसे डिस्ट्रीब्यूशन का काम करवाता है।
  • आज के जमाने में उद्योग में काम करने वाले डिस्ट्रीब्यूटर जहां एक्सपर्ट हो गये हैं, उनको देखकर मैन्यूफैक्चरर्स भी एक्सपर्ट हो गये हैं। जहां डिस्ट्रीब्यूटर अपने मनमाने कमीशन के लिए एक उद्योग के साथ कई उद्योगों के प्रोडक्ट को एकसाथ बेचते हैं वहीं निर्माता भी एक प्रोडक्ट को तैयार नहीं करते बल्कि उससे जुड़े सभी सहयोगी प्रोडक्ट को तैयार करवाते हैं ताकि उन्हें भी कई क्षेत्र में व्यापार एवं लाभ कमाने के अवसर मिल सकें।
  • मैन्यूफैक्चरर्स के साथ सारे व्यापारिक जोखिम व लाभ भी जुड़े होते हैं। मैन्यूफैक्चरर्स किसी प्रोडक्ट का पूरा मालिक होता है। यदि वह प्रोडक्ट मार्केट में हिट होता है और अधिक बिकता है और जो लाभ मिलता है उसमें मैन्यूफैक्चरर्स का हिस्सा अधिक होता है। यदि उसी प्रोडक्ट में कोई गड़बड़ी होती है और नुकसान होता है तो उसके सारे परिणाम को भी मैन्यूफैक्चरर्स को ही भुगतना पड़ता है।
  • मैन्यूफैक्चरर्स के साथ एक प्लस प्वाइंट यह होता है कि वह कुल लागत व संभावित प्रॉफिट मार्जिन को फिक्स करने के बाद ही अपने प्रोडक्ट की प्राइस तय करता है। इससे उसको घाटा उठाने की संभावना कम रहती है।
  • मैन्यूफैक्चरर्स चूंकि पहले से ही मार्केट का अध्ययन किये होता है तो उसे होलसेलर्स लेकर रिटेलर्स के रेट व उनकी प्रॉफिट मार्जिन मालूम होती है, वो डिस्ट्रीब्यूटर को अधिक आजादी नहीं देता है और वह उसके हिस्से में निश्चित कमीशन या प्रॉफिट मार्जिन मनी ही छोड़ता है।

डिस्ट्रीब्यूटर्स की भूमिका व महत्व

  • डिस्ट्रीब्यूटर यानी वितरक वो व्यक्ति होता है जो मैन्यूफैक्चरर्स से थोक में माल खरीद कर रिटेलर्स को प्रोडक्ट बेचता है। इस तरह से वितरक को मैन्यूफैक्चरर्स की अपेक्षा काफी हल्के में लिया जाता है लेकिन उसे मार्केट का ठेकेदार कहा जाये तो गलत न होगा।
  • मैन्यूफैक्चरर्स और डिस्ट्रीब्यूटर्स में प्रॉफिट मार्जिन को लेकर जहां खींचतान चलती है वहीं डिस्ट्रीब्यूटर्स और रिटेलर्स के बीच काफी अच्छे रिलेशन होते हैं क्योंकि डिस्ट्रीब्यूटर का पूरा काम रिटेलर्स पर ही टिका होता है।
  • डिस्ट्रीब्यूटर रिटेलर्स को प्रोडक्ट बेचने में हर तरह की सहायता करता है। उसे प्रोडक्ट की सभी खूबियों को अच्छी तरह से बताता है ताकि वह ग्राहकों को प्रोडक्ट के प्रति आकर्षित कर सके। यही नहीं वह रिटेलर्स को उसकी शॉप पर प्रोडक्ट के नये-नये आकर्षक तरीके से डिस्प्ले करने को बताता है ताकि प्रोडक्ट का अधिक से अधिक प्रचार हो सके और उसकी डिमांड बढ़ सके।
  • डिस्ट्रीब्यूटर अपनी मार्केट को उसी तरह से तैयार करता है जिस तरह से एक किसान अपनी फसल के लिये खेत को तैयार करता है। रिटेलर्स की टीम बनाने के लिए वह जरूरत पड़ने पर खाद-पानी भी डालता है। मतलब लम्बे समय में अधिक फायदा लेने के लिए अपने हिस्से के लाभ की छोटी-मोटी कुर्बानियां भी देता रहता है।
  • डिस्ट्रीब्यूटर अपने साथ रिटेलर्स की टीम केवल इसलिये नहीं बनाता कि वह किसी खास प्रोडक्ट को बिकवाना चाहता है बल्कि ऐसी टीम इसलिये बनाना चाहता है तक कोई भी प्रोडक्ट को आसानी से मार्केट में बेच कर अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जा सके और रिटेलर्स को भी अधिक से अधिक लाभ दिलाया जा सके।
  • डिस्ट्रीब्यूटर की इन्हीं भावनाओं को देखकर रिटेलर्स भी उसमें विश्वास करने लगते हैं। इस बात का पूरा लाभ डिस्ट्रीब्यूटर्स को मिलता है।
  • डिस्ट्रीब्यूटर को मैन्यूफैक्चरर्स की अपेक्षा कम मुनाफा मिलता हो लेकिन उसकी मार्केट पॉवर उससे कई गुना अधिक होती है। कभी कभी तो किसी किसी डिस्ट्रीब्यूटर का किसी क्षेत्र में एक तरह से कब्जा हो जाता है।

मैन्यूफैक्चरर्स के व्यापारिक दायित्व एवं लाभ

  • मैन्यूफैक्चरर्स के व्यापारिक दायित्व अनेक तरह के होते हैं। अपने प्रोडक्ट के लिए वह पूरी तरह से जिम्मेदार होता है। प्रोडक्ट की क्वालिटी, एक्सपायरी डेट के माल का नुकसान आदि की पूरी तरह से जिम्मेदारी मैन्यूफैक्चरर्स की होती है।
  • प्रोडक्ट की मार्केटिंग, एडवरटाइजिंग आदि की जिम्मेदारी भी मैन्यूफैक्चरिंग की होती है। समय समय पर प्रोडक्ट के प्रति ग्राहकों में जागरुकता लाने के लिए विशेष अभियान, विचार गोष्ठी अन्य सोशल प्रोग्राम भी कराने होते हैं।
  • मैन्यूफैक्चरर्स को ग्राहक से प्रोडक्ट के बारे मिलने वाली किसी तरह की शिकायत को दूर करना होता है। जरूरत पड़ने पर प्रोडक्ट को वापस मंगाकर उसमें सुधार कर वापस ग्राहक को बिना किसी चार्ज के देना होता है। कहने का मतलब यह है कि मैन्यूफैक्चरर्स को प्रोडक्ट से संबंधी सारे जोखिम उठाने होते हैं।
  • प्रोडक्ट के अधिक बिकने से मैन्यूफैक्चरर्स को अधिक प्रॉफिट मार्जिन मिलती है। मार्केट की जबर्दस्त कंपटीशन के चलते कभी कभी मैन्यूफैक्चरर्स की आमदनी सीमित भी हो जाती है। लेकिन मैन्यूफैक्चरर्स इसमें अपने दिमाग का इस्तेमाल करके इन विषम परिस्थितियों में प्रोडक्ट के वजन आदि में कमी या कोई स्कीम चलाकर अपना लाभ का हिस्सा मेनटेन करता है।
  • मैन्यूफैक्चरर्स को बिजनेस शुरू करने में ही एक बार बड़ी पूंजी लगाने के बाद कच्चा माल मंगाकर व श्रमिकों व मशीनों के माध्यम से प्रोडक्ट को तैयार करने का सिलसिला जारी रखना होता है। एक बार पूरा सिस्टम बनने के बाद निर्माता को फिर अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती है और जैसे जैसे उसके प्रोडक्ट की मार्केट डिमांड बढ़ती जाती है उसको वैसे-वैसे उसका प्रॉफिट मार्जिन भी बढ़ता रहता है।

मैन्यूफैक्चरर्स को कितना लाभ मिलता है

मैन्यूफैक्चरर्स को मिलने वाला लाभ कोई फिक्स नहीं होता है। विभिन्न उद्योगों में लाभ मिलने के अलग-अलग तरीके होते हैं। वैसे लाभ उद्योगों में लाभ मांग-आपूर्ति, अर्थव्यवस्था के हालात, व्यापारिक नियम-कानून एवं अन्य आर्थिक उतार-चढ़ाव में लगातार होने वाले बदलाव पर निर्भर करता हैं। इसके बावजूद भी अनुभवी लोगों का अनुमान है कि मैन्यूफैक्चरर्स को आसानी से 30 से 35 प्रतिशत तक का लाभ मिल जाता है।

डिस्ट्रीब्यूटर के व्यावसायिक दायित्व और लाभ

  • डिस्ट्रीब्यूटर के व्यावसायिक दायित्व होते हैं। उसे अपने प्रोडक्ट की सेल बढ़ाने के लिए हरसंभव प्रयास करना होता है। डिस्ट्रीब्यूटर मैन्यूफैक्चरर्स और रिटेलर्स के बीच एक महत्वपूर्ण व्यापारिक कड़ी होता है। उसका दायित्व दोनों ही लोगों के लाभ में वृद्धि सुनिश्चित करना होता है।
  • डिस्ट्रीब्यूटर को चाहिये कि वह रिटेलर्स को प्रोडक्ट की मांग के अनुरूप सही समय पर पूरी सप्लाई करे। साथ ही रिटेलर्स को प्रोडक्ट बेचने में हर संभव की सहायता भी करे।
  • प्रोडक्ट को सेल करने के साथ रिटेलर्स व ग्राहकों से उसके बारे में फीड बैक ले और उस फीडबैक में प्रोडक्ट के बारे में जो जानकारी मिले उसे मैन्यूफैक्चरर्स को अवगत कराये ताकि वह उसमें आवश्यक संशोधन करके उसे ग्राहक की जरूरत के अनुरूप बना सके।
  • डिस्ट्रीब्यूटर का यह दायित्व है कि वह मैन्यूफैक्चरर्स और रिटेलर्स दोनों से अच्छे रिश्ते बनाकर रखे और प्रोडक्ट को अधिक से अधिक सेल का प्रयास करता रहे।
  • डिस्ट्रीब्यूटर का यह भी दायित्व है कि यदि मार्केट में उसके प्रोडक्ट की जगह पर कोई नया वैकल्पिक प्रोडक्ट आ रहा हो तो उससे मैन्यूफैक्चरर को सतर्क करना चाहिये। ताकि निर्माता उस नये प्रोडक्ट से होने वाले किसी तरह के नुकसान से बचने व कंपटीशन के लिए खुद को तैयार कर सके और अपने प्रोडक्ट को अपडेट कर सके।
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डिस्ट्रीब्यूटर को कितना लाभ मिलता है

डिस्ट्रीब्यूटर थोक में माल खरीद कर रिटेलर्स को बेचता है। डिस्ट्रीब्यूटर की मिडिल मैन की भूमिका बहुत पेंचीदा होती है। उसे अपनी पूंजी भी फंसानी होती है, मेहनत भी करनी होती है लेकिन उतना लाभ उसे नहीं मिल पाता है, जितना मैन्यूफैक्चरर व रिटेलर्स को मिलता है। मैन्यूफैक्चरर इसलिये अधिक प्रॉफिट मार्जिन ले लेता है क्योंकि वह पूंजी आदि लगाकर अपना प्रोडक्ट तैयार करता है और वो ऐसे डिस्ट्रीब्यूटर तलाशता है जो कम से कम प्रॉफिट मार्जिन पर उसका काम कर सके। डिस्ट्रीब्यूटरों के बीच जबर्दस्त कंपटीशन होने के कारण उसे कम से कम लाभ पर ही काम करना होता है। अनुभवी लोगों का मानना है कि डिस्ट्रीब्यूटरों को 3 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक का लाभ मिल पाता है।

मैन्यूफैक्चरिंग का बिजनेस अधिक फायदेमंद क्यों है?

मैन्युफैक्चरिंग का बिजनेस शुरू-शुरू में बहुत अधिक मेहनत मांगता है। फैक्ट्री शुरू करने के सारे बुनियादी काम करने होते हैं, मार्केट रिसर्च करनी होती है, सरकारी लाइसेंसों, परमीशनों के लिए भी भागदौड़ करनी होती है, पैसे भी खर्च करने होते हैं। मार्केटिंग भी करनी होती है, एक बार सारा कुछ सेट हो जाने के बाद निर्माता का काम आसान हो जाता है। जैसे-जैसे उसके प्रोडक्ट की डिमांड बढ़ती जाती है वैसे-वैसे वो अपनी प्रॉफिट मार्जिन बढ़ाता रहता है। इससे उसको अधिक लाभ होता है।

दूसरी ओर डिस्ट्रीब्यूटर को भी पूंजी लगानी होती है लगातार मेहनत भी करनी होती है। फिर भी उसे निर्माता की मेहरबानी पर प्रॉफिट मार्जिन ही मिल पाता है। उसका प्रमुख कारण यह है कि वितरक मार्केट में जबर्दस्त कंपटीशन के कारण निर्माता की मर्जी के खिलाफ अपना प्रॉफिट मार्जिन बढ़ाने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। किस वितरक ने यदि ऐसा दुस्साहस किया तो उसकी जगह किसी दूसरे डिस्ट्रीब्यूटर को तत्काल मौका मिल जाता है। इसका कारण यह भी है कि बहुत से ऐसे भी वितरक होते हैं जो शुरू-शुरू में अपना प्रॉफिट बहुत कम लेते हैं या अपने प्रॉफिट को अपना व्यापारिक क्षेत्र बढ़ाने में इस्तेमाल करते हैं। वे निर्माता पर अधिक से अधिक व्यापारिक क्षेत्र देने की मांग करते हैं। कुछ समय बाद जब उनका बाजार पर कब्जा हो जाता है तब वे अपना असली बिजनेस करते हैं।

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