बेशक आज कोका-कोला दुनिया का निर्विवादित साफ्टड्रिक हैं लेकिन इसके जन्म से लेकर आज तक की कहानी अगर आप पढ़ेंगे तो यकीन मानें, अंगुलियां दबा लेंगे। भला कोई कैसे उम्मीद कर सकता था कि एक फौजी, जो घायल था और वह प्रकारांतर में आकर कोका-कोला बनाता है और उसे बेचता भी है। वह भी मात्र पांच सेंट में। तो, कहानी जबरदस्त है। बैठे रहिए और पढ़ते जाइए इसे।
एक फौजी ने बनाया Coca-Cola
यह कहानी है जॉन पेम्बर्टन नामक एक फौजी की। वह एक शानदार फौजी थे। लेफ्टिनेंट कर्नल के पोस्ट पर थे। उन्होंने अमेरिका की तरफ से अनेक युद्धों में हिस्सा लिया। सन 1865 की बात है। यानी आज से 157 साल पहले की। अमेरिका गृहयुद्ध में उलझा हुआ था। उस गृहयुद्ध में जॉन पेम्बर्टन भी शरीक थे। उन्होंने देश में अमन कायम करने के लिए फौजी की वर्दी पहनी थी। एक दिन वह घायल हो गए। नागरिकों में से किसी ने उन्हें घायल किया था। वह दर्द से तड़प रहे थे। तब पेन किलर का आविष्कार नहीं हुआ था। जान इस दर्द से निजात चाहते थे पर उन्हें सूझ नहीं रहा था कि कैसे निजात मिले। जख्म बहुत ही ज्यादा तकलीफ दे रहे थे। दर्द से राहत पाने का जान के पास जब कोई विकल्प नहीं दिखा तो उन्होंने
छोड़ दी नौकरी
ड्रग का नशा करना शुरू कर दिया। ड्रग्स ले रहे हैं तो फौज की नौकरी कैसे कर सकते हैं। लिहाजा, उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहले वह कोलंबस में रहते थे। जब नौकरी छोड़ दी तो जार्जिया में आकर बस गए। कुछ वक्त के बाद जख्म ठीक हो गया। घाव भर गया। दर्द खत्म हो गई। गृहयुद्ध भी खत्म हो गया। लेकिन, जान के जीवन में बहुत परिवर्तन नहीं आया। उनकी नौकरी जा चुकी थी। उस पर से उन्हें ड्रग्स लेने की आदत पड़ गई थी। वह लती हो गए थे। वह बेहद परेशान रहते थे। वह इसे छोड़ना चाहते थे पर कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था।
फार्मेसी का कोर्स आया काम
थोड़ा पहले आपको ले चलें। जान ने फौज की नौकरी करने के पहले फार्मेसी का भी कोर्स किया था। उन्हें रसायन शास्त्र की अच्छी जानकारी थी। सो, जब वह लती हो गए ड्रग्स के तो उन्होंने शोध करना शुरू किया कि आखिर कैसे वह इस लत से मुक्ति पाएं।
जार्जिया छोड़ी, अटलांटा में बसे
यह 1870 की बात है। उन्होंने जार्जिया छोड़ दी। अब वह अटलांटा में आकर बस गए। अटलांटा में ही उनकी मुलाकात एक शख्स से हुई। उसका नाम फ्रैंक राबिन्सन था। दोनों में बातें हुईं। दोनों ने मिल कर एक कंपनी खोली। फ्रैंक अकाउंट और मार्केटिंग का काम देखने लगा। जान अपने उस पेय पदार्थ पर दोबारा रिसर्च करने लगा, जो ड्रग्स का विकल्प हो सकता था। उसने बीते कई वर्षों तक उस पर मेहनत भी की थी। लेकिन हर बार वह निराश ही होता था।
1886 में हुआ आविष्कार
यह थी मई 1886 की एक दोपहर। जान ने एक तरल पदार्थ बनाया। उसे वह जैकब फार्मेसी ले गया। उस तरल पदार्थ में थोड़ा सा सोडा का पानी मिलाया गया और फिर जो लोग वहां मौजूद थे, उन्हें टेस्ट कराया गया। लोगों को वह टेस्ट काफी बेहतर लगा। जान बेहद खुश हुआ। उसे लगा, वह अपनी मंजिल तक पहुंच गया है। शुरुआत के दिनों में इस पेय पदार्थ की बिक्री मात्र 9 गिलास प्रतिदिन की होती थी। अर्थात, यह घाटे का सौदा था। अब बड़ा सवाल यह था कि इस पेय पदार्थ का नाम क्या दिया जाए। तब फ्रैक राबिन्सन ने इस पदार्थ का नाम रखा-कोका-कोला। इसके मिश्रण में कोरा अखरोट से कोका पत्ती और उसमें मिलाए गए कैफीन के सिरप के नुस्खे को कोका-कोला से जोड़ा गया था। दो सी आ रहे थे और फ्रैंक और जान यही चाहते थे कि दो सी आएं ताकि लोगों को उच्चारण में कोई परेशानी न हो। इस प्रकार ब्रांड नेम तैयार हो गया और प्रति गिलास पांच सेंट की कीमत भी तय कर दी गई।
5 सेंट में एक गिलास कोका-कोला
रिकार्ड बताते हैं कि पहली बार कोका-कोला 8 मई 1886 को जैकल फार्मेसी पर कोका-कोला बेचा गया। 5 सेंट प्रति गिलास। एक दिन में मात्र 9 गिलास। एक दिन की आमदनी 45 सेंट। पहले साल माज्ञ 25 गैलन की खपत हुई। लागत 70 डालर की, कमाई हुई 50 डालर की। यह घाटे का सौदा था। लेकिन, इसे चलाया जा रहा था।
फार्मूला की खरीदी
यह था वर्ष 1887। अटलांटा का एक बिजनेसमैन आसा ग्रिग्स कैंडलर जान के पास आया। काफी बातचीत हुई। फिर उसने जान से 2300 डालर नगद में कोका-कोला का फार्मूला खरीद कर ले गया। अब फार्मूला कैंडलर के पास था। उन्होंने कोका-कोला के लिए एक नई रणनीति बनाई। उन्होंने हजारों कूपन छपवाए और लोगों को मुफ्त में देने लगे। जो भी वह कूपन दिखाता, उसे कोका-कोला मुफ्त में पीने को दिया जाता। यह कई महीनों तक चलता रहा। कैंडलर को जब लगा कि अब लोग मुफ्तखोर हो गए हैं, बिना कोका-कोला के नहीं रह सकते तो उन्होंने कोका-कोला की कीमत तय कर दी। लोगों को कोको-कोला का ऐसा स्वाद लगा था कि वे अब इसे खरीद कर पीने लगे। इसकी ब्रांडिंग करने के लिए उन्होंने खूब विज्ञापन दिया। पोस्टर, होर्डिंग्स चिपकवाए गए। आप मान लें कि साल 1890 तक कोका-कोला अमेरिका का सबसे भरोसेमंद ब्रांड बन चुका था। यहां तक वर्णन मिलता है कि जो लोग थके मांदे होते थे, जो सिरदर्द से हलकान रहते थे, वो भी कोका-कोला पीने लगे और उन्हें राहत महसूस होने लगी।
कोका-कोला बोतल में
अब आया साल 1894 का वक्त। 1894 में एक बिजनेसमैन जोसेफ बिएडेनहार्न ने कोका कोला को देखा। उसे लगा, इसे तो बोतल में बिकना चाहिए। उसने कैंडलर से बात की। दोनों राजी हो गए। तब जोसेफ ने इस प्रोडक्ट को शीशे की बोतलों में बेचने का काम प्रारंभ किया। अब कोका-कोला को आप दुनिया के किसी भी देश में ले कर जा सकते थे।
कोकीन का खात्मा
वर्ष 1903 के बाद से कोका-कोला से कोकीन की मात्रा को खत्म कर दिया गया। हां, तब कोकीन की पत्तियों का इस्तेमाल होता था पर बहुत कम। गुजरते वक्त के साथ कोका-कोला लोगों की पहली पसंद बन गई थी। तब अमेरिका के पूंजीपतियों का ध्यान इस पर गया। कंपनी चाहती थी कि एक ऐसा बोतल बने, जो कंजूमर्स को यह भरोसा दे सके कि यही असली कोका-कोला है। तभी रूट गिलास बनाया गया। 1916 से कोका-कोला उसी रूट गिलास में बिकने लगी।
तीसरी बार बिकी कंपनी
अब आता है वर्ष 1923 का काल। इस साल राबर्ट वुड्रफ ने कैंडलर से पूरी कंपनी ही खरीद ली। वुड्रफ कोका-कोला के तीसरे मालिक थे। उन्होंने कंपनी को अपने हिसाब से चलाया और कहने की बात नहीं कि आज जो कोका-कोला आप देख रहे हैं, वह वुड्रफ के प्रयासों का ही नतीजा है। कहां अमेरिका और कहां दुनिया भर के देश।
गजब की स्ट्रेटिजी
दूसरा विश्वयुद्ध (1939-1945) शुरू हो गया था। हजारों अमेरिकी सैनिक विदेशों में थे। तब वुड्रफ ने एक शानदार मार्केटिंग स्ट्रेटजी बनाई। उन्होंने अमेरिकी सैनिकों के लिए कोका-कोला की फ्री बोतलें भिजवाईं। लोगों के मन में इस ब्रांड को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई और देखते ही देखते फौजियों की पहली पसंद के रूप में कोका-कोला छा गया।
भारत में Coca-Cola
वर्ष 1993 में कोका-कोला भारत में आई। तब से लेकर आज तक कोका-कोला भारत में है। जितना विवाद भारत में पेप्सी को लेकर हुआ, उस किस्म का कोई विवाद कोका-कोला को लेकर भारत में कभी नहीं हुआ। भारत में कोका-कोला इंडिया लिमिटेड के नाम से कंपनी चल रही है। इसमें हजारों वर्कर काम करते हैं। कोरोना काल में इस कंपनी ने प्रधानमंत्री राहत कोष में एक बढ़िया धनराशि डोनेट की थी, हालांकि कंपनी कभी उस धनराशि का खुलासा नहीं करती।
Coca-Cola को चुनौती
कोका-कोला को शुरूआत के दिनों में पेप्सी से चुनौती मिली। उसके बाजार पर थोड़े समय के लिए पतंजलि का भी कब्जा रहा पर अंत में अपने स्वाद के दम पर पतंजलि और पेप्सी, दोनों से यह मुकाबला जीत कर भारत में सबसे बड़े साफ्टड्रिंक ब्रांड के रूप में फिलहाल काबिज है। कंपनी का दावा है कि वह भारत सरकार के हर दिशा-निर्देशों का पालन करती है। हालांकि पतंजलि ने कोका-कोला, पेप्सी सभी के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ रखा था। पतंजलि का दावा था कि इस प्रकार के मल्टीनेशनल प्रोडक्ट को खरीदने से आम भारतीय का पैसा विदेशों में जाता है पर लोगों पर शायद उस बात का बहुत अधिक असर नहीं हुआ। इसके उलट, पतंजलि जिन कोल्डड्रिंक्स को बाजार में लेकर उतरी, उसे लोगों का बढ़िया प्रतिसाद नहीं मिला। एक बार फिर साबित हुआ कि प्रोडक्ट कोई भी हो, अगर उसकी गुणवत्ता शुद्ध है तभी उसे लोग खरीदेंगे अन्यथा नहीं। यही कोका-कोला के सफल होने की कहानी है...बढ़िया टेस्ट का होना।
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